Raavi Paar
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बलवन्त सिंह जन्म : 1925, गुजराँवाला, पश्चिमी पंजाब (अब पाकिस्तान)। शिक्षा : इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक। हिन्दी कथा-साहित्य में अकेले ऐसे कृतिकार जिन्होंने पंजाब के ऐतिहासिक काल से लेकर आधुनिक मनोभूमि के विराट चित्र अपनी कृतियों में प्रस्तुत किये हैं। इनकी कितनी ही औपन्यासिक कृतियों को महाकाव्य कहा जा सकता है। जनजीवन के सामाजिक यथार्थ की ऐसी विश्वसनीयता हिन्दी साहित्य में प्रायः विरल है। परिवेश ऐतिहासिक हो या समसामयिक-उनकी रचनाओं में संवेदना का तरल प्रवाह विद्यमान है। 12-13 वर्ष की आयु में पहली गद्य रचना। 1964 तक व्यवसाय। प्रमुख प्रकाशित पुस्तकें : रात चोर और चाँद, काले कोस, रावी पार, विजयनगर की राज नर्तकी, साहिबे-आलम, राका की मंज़िल, चकपीराँ का जस्सा, दो अकालगढ़, एक मामूली लड़की, औरत और आबशार, आग की कलियाँ, बासी फूल (उपन्यास); पहला पत्थर, चिलमन, मैं जरूर रोऊँगी, पंजाब की कहानियाँ, बनवास, देवता का जन्म, ऐली-ऐली, आनन्दकारज, (कहानियाँ); अमृता प्रीतम (आलोचना)। निधन : 27 मई, 1986.
- Language: Hindi
- Binding: Hardcover
- Publisher: Lokbharti Prakashan
- Genre: Fiction
- ISBN: 9789390625208
- Pages: 135
रावी नदी से करीब दो मील पूर्व की ओर एक गाँव है जिसे चब्बा कहते हैं। चब्बा अपने ऊँचे-लम्बे जवानों के लिए अपने इलाके में दूर-दूर तक मशहूर था। हर लड़का जब सोलह-सत्रह साल की उम्र तक पहुँचता तो बड़े लोग उसके हाथ-पाँव निकलने से अन्दाज़ा लगाने लगते कि वह कैसा करारा जवान होगा। जिस लड़के से कुछ भी आशा बँध जाती , उसे हर ओर से खूब प्रोत्साहन मिलता। उन दिनों बागड़सिंह नया-नया जवान हुआ था। जवानी की मस्ती तो वैसे भी मशहूर है, लेकिन बागड़सिंह के दिमाग़ में यह मस्ती बिलकुल खरमस्ती का रूप धारण कर गयी थी। काबलासिंह साढ़े छह फुट से भी ऊँचा था और उसे पौने छह फुट से कम बागड़सिंह बिलकुल मच्छर-सा दिखायी दिया। यह माना कि बागड़सिंह काबलासिंह के मुक़ाबले में कुछ नहीं था, लेकिन इसमें भी कोई सन्देह नहीं था कि उसके बदन में भी बिजली कूट-कूटकर भरी हुई थी। सारे जवान काबलासिंह को देखकर एक ओर हट गये और काबलासिंह की नज़रें अब भी उस घुड़सवार पर जमी हुई थीं- सुजानसिंह ने घोड़ा दौड़ाया नहीं- वह पहले की तरह सहज से आगे बढ़ता चला गया. काबलासिंह ज्यों-का-त्यों दरवाजे पर हाथ रखे खड़ा था. और बागड़सिंह पीछे खड़ा मालिक की गुद्दी पर लहलहाते हुए लाल पीले और सफ़ेद नन्हें-नन्हें बालों को देख रहा था. “बागेड़या!” सुनकर बागड़सिंह का कलेजा धक-धक करने लगा. अपने शरीर की पूरी शक्ति लगाकर उसके मुँह से बड़ी ही भरी हुई आवाज़ निकली “जी।” इसी से सुरजीत का रिश्ता कर देने के लिए कह रहा था? मालिक की यह आवाज़ सुनकर बागड़सिंह सुन्न हो गया.उसे भागने का कोई रास्ता दिखायी नहीं दे रहा था.अबकी उसके मुँह से भरी हुई आवाज तक न निकल सकी। अपनी बात का उत्तर न पाकर मालिक ने घूमकर उसकी ओर देखा. बागड़सिंह ने डरते-डरते अपनी पलकें ऊपर उठायीं उसने देखा कि काबलासिंह की घनी मूंछों तले उसके मोटे होंठों पर एक हल्की-सी मुस्कान चन्द्रमा की पहली किरण की तरह जन्म ले रही थी।
Additional information
Weight | 0.4 kg |
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Dimensions | 20 × 12 × 5 cm |
brand | Natham publication |
Genre | Fiction |
Binding | Hardcover |
language | Hindi |